बिहार में आजकल ट्रैफिक चेकिंग अभियान के दौरान विभाग के द्वारा हर दिन लाखों-करोड़ों रुपये फाइन के रूप में वसूले जाते हैं। यह कहा जाता है कि इसका उद्देश्य वाहन दुर्घटनाओं में कमी लाना और लोगों को ट्रैफिक नियमों के प्रति जागरूक करना है। लेकिन सवाल यह है कि क्या केवल नियम का पालन कराने से ही सड़क हादसे कम हो जाएंगे ?
सड़क की हालत भी एक बड़ा कारण
हम मानते हैं कि हेलमेट पहनना, सीट बेल्ट लगाना, स्पीड लिमिट का पालन करना—ये सभी दुर्घटना रोकने में मददगार हैं। लेकिन अगर सड़कें गड्ढों से भरी हों, जगह-जगह टूट-फूट हो, या उचित साइन बोर्ड न हों, तो दुर्घटनाओं के खतरे वैसे ही बने रहते हैं। सिर्फ हेलमेट पहन लेने से सड़क की खराबी से होने वाली दुर्घटनाएँ नहीं रुक सकतीं।
फाइन का मकसद या वसूली?
लोगों के मन में यह सवाल उठना लाज़मी है कि जब करोड़ों रुपये फाइन के रूप में वसूले जाते हैं, तो क्या उसका उपयोग सड़क सुधार और सुरक्षा इंफ्रास्ट्रक्चर में होता है? या फिर यह सिर्फ राजस्व वसूली का एक तरीका बनकर रह गया है? अगर सड़कें ही चलने लायक न हों, और फिर भी ड्राइवर से भारी फाइन वसूला जाए, तो यह एकतरफा कार्रवाई कही जाएगी।
जिम्मेदारी से बचना आसान, समाधान मुश्किल
जब सड़क की खराब स्थिति पर सवाल उठाया जाता है, तो अक्सर ट्रैफिक विभाग यह कहकर पल्ला झाड़ लेता है कि यह रोड कंस्ट्रक्शन या नगर निगम का काम है। इस विभागीय खींचतान में जनता परेशान होती है और सड़क की हालत जस की तस बनी रहती है।
सड़क सुरक्षा का असली मतलब
सड़क सुरक्षा सिर्फ हेलमेट, सीट बेल्ट और चालान भरने तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसका असली मतलब है—बेहतर सड़कें, उचित ट्रैफिक सिग्नल, साफ़ निशान, रिफ्लेक्टर, स्ट्रीट लाइट और समय-समय पर मरम्मत। अगर यह सब होगा, तो दुर्घटनाओं में स्वाभाविक रूप से कमी आएगी और फाइन वसूली का बोझ भी कम होगा।

निष्कर्ष
अगर सरकार और विभाग सच में सड़क सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं, तो फाइन के साथ-साथ सड़कों की हालत सुधारने पर भी समान जोर देना होगा। वरना यह धारणा बनी रहेगी कि करोड़ों का फाइन सिर्फ कागज़ी खानापूर्ति और वसूली का जरिया है, न कि सड़क सुरक्षा का असली समाधान।